28 मार्च 2014

कैंची ( अपर्णा अनेकवर्णा )


बचपन वाली.. नारंगी प्लास्टिक मढ़ी..
सपने जोड़ने के लिए रंगीन पतंगी कागज़ काटती थी
एक दिन परदे काट दिए थे या जाने चादर..
मेरे सूरज वाला पीला वहीँ मिला.. क्या करती..
सबने डांटा.. मैंने रूस कर ऐसी जगह छुपा दी.. आज तक न मिली..
बस सपनो में आती कभी-कभी मिलने.. पीछे पीला सूरज चमकता रहता

माँ वाली सुगढ़ फौजी लोहे की थी एक 
खो दी थी मैंने एन सी सी कैंप में
ज़िद कर कर के ले गयी थी
आज तक चुभती है.. माँ के आँखों
का अफ़सोस बनकर... नैहर की थी न..

दादी की शाही.. पीतल वाली कैंची..
उनकी शख्सियत सी ही रौबीली..
मेरे नन्हे हाथों को थी मनाही..
उसे छूने की... ससम्मान लायी जाती..
जब उत्सव, पूजा की तैय्यारी होती..
बाद उनके मिली मुझे संदूक के इक कोने में..
टूअर सी पड़ी हुयी थी जंक लगी..

चौथी काका की लकड़ी के हत्थे वाली कैंची..
कामिनी और मेहँदी की फेंस काटती मक्खन सी
मैं बैठी दालान की सीढ़ीयों पर बैठी मुग्ध देखा करती
उसकी कारस्तानी.. ये मोर.. छतरियां बनाना हरी पत्तियों से
कैसे कर लेती.. ज़रूर ही कोई मंतर बोलते थे काका..
मेरे बचपन के जादूगर जो थे...

और याद है नाउन बुआ की नहरनी..
अपने आप की अनोखी कैंची.. एक छोर तीखी तेज़..
की एक बार में हाथ पैर की उंगलियां के नख आधे चाँद बनाये
ज़मींदोज़ होते... दूजे मुड़े छोर से आलता वाले सूरज की किरने बनाती..
मैं तय पाती.. ये नाउन बुआ भी कोई मंतर ही तो जानती हैं..
हर वक़्त अम्मा से.. दादी से कुछ खुसफुसाती..
बस ये नहीं समझ पाती की मेरी उपस्थिति को
हमेशा उस आग्नेय दृष्टि की कैची से काट दिया जाता..
मैं पैर पटक कर चल देती..
अपनी गुड़िया से उन सबकी शिकायत करती..

कैंचियां अब भी हैं... दृश्य.. अदृश्य...
खचा-खच चला करती हैं..
कभी दिख जाती है काट-पीट..
कभी बहता दर्द भी नहीं दीखता...  ~ अनेकवर्णा

Aparna Anekvarna